Tuesday, February 11, 2025
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शुरू में स्टालिन इस नेता की वजह से भारत-रूस में हुई गाधी दोस्ती को पसंद नहीं करते थे, तब ‘वीटो’ के जरिए कश्मीर पर दिया गया था साथ

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस की दो दिवसीय यात्रा पर हैं। रूस कई दशकों से हमारा सच्चा दोस्त रहा है। दोनों देशों के बीच दोस्ती को दुनिया में मिसाल के तौर पर देखा जाता है। लेकिन दोनों देशों के बीच इस रिश्ते को बनने में समय लगा। 1950 के दशक में जब स्टालिन के बाद ख्रुश्चेव ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने बेहतर संबंधों के लिए हमेशा चीन के बजाय भारत को प्राथमिकता दी। वैसे, यह जानना दिलचस्प है कि स्टालिन किस तरह से स्वतंत्र भारत को साम्राज्यवादी शक्तियों की कठपुतली मानते थे। वह नेहरू और गांधी को भी अंग्रेजों का सहयोगी मानते थे। बाद में राष्ट्रपति बने राधाकृष्णन ने कैसे इसे पूरी तरह से बदल दिया।

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन एक शिक्षाविद् के तौर पर मशहूर थे और एक दार्शनिक के तौर पर भी उनकी विदेशों में सराहना हुई। एक कूटनीतिज्ञ के तौर पर वह कुशाग्र और चतुर थे। माना जाता है कि इस मामले में उन्होंने चाणक्य परंपरा का पालन किया। उन्हें पता था कि क्या, कब और कहां करना है। जब उन्हें सोवियत संघ में राजदूत बनाकर भेजा गया, तो उन्होंने भारत के खिलाफ बह रही नकारात्मक हवा को बदलने का शानदार काम किया। रूस में लंबे समय तक रहे अशोक कपूर ने अपनी किताब “द डिप्लोमैटिक आइडियाज एंड प्रैक्टिसेज ऑफ एशियन स्टेट्स” में लिखा है कि जब राधाकृष्णन को 1950 में राजदूत बनाकर मास्को भेजा गया था, तब उनका काम बहुत मुश्किल था।

स्टालिन की राय अच्छी नहीं थी
सोवियत संघ और तत्कालीन राष्ट्रपति जोसेफ स्टालिन की भारत के बारे में राय बहुत अच्छी नहीं थी। यह वह दौर था जब दोनों देशों के बीच संबंधों में कोई गहराई नहीं थी, बल्कि यूं कहें कि संबंध ही नहीं थे। मास्को में भारत की छवि नकारात्मक बनी हुई थी। उन्हें लगता था कि आजादी के बाद भी भारत साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों में खेल रहा है। मास्को के अखबार भारत को साम्राज्यवादियों का पिट्ठू मानकर खबरें लिखते थे।

विजयलक्ष्मी कुछ नहीं कर पाईं
भारत ने आजादी के बाद सोवियत संघ में अपना पहला राजदूत बनाकर विजयलक्ष्मी पंडित को भेजा था। उन्होंने कई बार स्टालिन से मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें इजाजत नहीं दी गई। स्टालिन उन्हें घमंडी और बहुत अभिजात्य मानते थे। इसलिए विजयलक्ष्मी पंडित दो साल तक मास्को स्थित भारतीय दूतावास तक ही सीमित रहीं। नतीजा यह हुआ कि दो साल बाद वह वहां से खाली हाथ लौट आईं। लोगों का मानना ​​है कि स्टालिन उनसे नाखुश रहे।

कठिन काम

ऐसे में समझा जा सकता है कि विजयलक्ष्मी की जगह मॉस्को भेजे जाने पर राधाकृष्णन के सामने कितनी बड़ी चुनौती रही होगी। मॉस्को छोड़ने से पहले राधाकृष्णन संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत थे। अब उन्हें स्टालिन को खुश करना था, जो बहुत मूडी भी थे। और अगर उनके दिमाग में कोई विचार आ भी जाता तो वह आसानी से उससे बाहर नहीं निकल पाते थे। उन्होंने भारत और नेहरू के खिलाफ एक नकारात्मक विचार बना लिया था।

रात में सिर्फ दो घंटे सोने का प्रचार

राधाकृष्णन एक चतुर व्यक्ति थे। वह एक दार्शनिक भी थे। उन दिनों रूस में दार्शनिकों को बहुत सम्मान दिया जाता था। इसलिए उन्होंने मॉस्को में खुद को अलग और खास दिखाने के लिए अपनी इस छवि को भुनाने की कोशिश की। मॉस्को के कूटनीतिक हलकों में उनके बारे में यह प्रचार फैलने लगा कि वह रात में सिर्फ दो घंटे सोते हैं। वह सारी रात दर्शनशास्त्र की किताबें लिखने में व्यस्त रहते हैं। दिन में वह एक राजनयिक की भूमिका निभाते हैं। वह एक रहस्यमयी व्यक्तित्व बन गए।

उन्होंने स्टालिन पर जादू कर दिया।

यह प्रचार बहुत कारगर रहा। सोवियत संघ में राधाकृष्णन की एक अलग छवि बनने लगी। जब उन्होंने स्टालिन से मिलने के लिए समय मांगा तो उन्हें तुरंत समय मिल गया। भारतीय दूतावास की ओर से विदेश मंत्रालय को भेजे गए केबल में कहा गया कि पहली मुलाकात बहुत उपयोगी रही, जिसने स्टालिन की भारत के बारे में कई धारणाएं बदल दीं। उन्होंने भारत के बारे में गलतफहमियों को दूर किया। इस मुलाकात में स्टालिन अपनी आदत के विपरीत हंसे और अनौपचारिक हो गए।

स्टालिन को लगता था कि भारत में अंग्रेजी भाषा का राज है। उन्होंने पूछा- यहां किस भाषा में काम होता है। राधाकृष्णन ने चतुराई से जवाब दिया कि देश की सबसे लोकप्रिय भाषा हिंदी है। सोवियत प्रमुख इस पर खुश हुए। अगर राधाकृष्णन का जवाब अंग्रेजी होता तो स्टालिन को शायद यह पसंद न आता।

सफलतापूर्वक काम पूरा करके लौटे
राधाकृष्णन ढाई साल बाद मास्को से चले गए। उन्हें 8 अप्रैल को भारत लौटना था। इससे ठीक तीन दिन पहले उन्होंने स्टालिन से मिलने की कोशिश की थी। उन्हें समय मिलता था, स्टालिन विदेशी राजदूतों को उनसे मिलने के लिए लंबे समय तक इंतजार करवाते थे। काफी हद तक उन्होंने स्टालिनमोदी के सामने भारत की एक अलग तस्वीर पेश की थी। साथ ही, वे नेहरू और मॉस्को को करीब लाने में सफल रहे। अपनी आखिरी मुलाकात में भी उन्होंने भारत के बारे में बची हुई गलतफहमियों को दूर किया।

और तभी सोवियत संघ ने कश्मीर पर वीटो लगा दिया

इसकी वजह से सोवियत संघ और भारत इतने करीब आ गए कि 1951 में सोवियत संघ ने कश्मीर विवाद पर भारत के समर्थन में अपने वीटो पावर का इस्तेमाल किया। बाद में स्टालिन ने सर्वपल्ली राधाकृष्णन से कहा कि, “आप और नेहरू दोनों ही ऐसे लोग हैं जिन्हें हम अपना दुश्मन नहीं मानते। हमारी दोस्ती की नीति जारी रहेगी। आप हमारी मदद पर भरोसा कर सकते हैं।

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